किसान आन्दोलन का एक अध्याय भारत बंद के आवाहन के साथ पूरा हुआ. कृषि कानून बनाने के बाद से ही जबसे किसानों की और से इसे लेकर कुछ आपत्तियां सामने आने लगी, तभी से सरकार का रवैया मिल बैठ कर बातचीत करने और उनकी आशंकाओं-कुशंकाओं को दूर करने का रहा है. सरकार कानून रद्द करने के खिलाफ है, लेकिन जिन मुद्दों पर किसान संगठनों को आपत्ति है, उस पर उनकी बात सुनने और हर संभव समाधान करने की हमेशा तैयारी दिखाई और बातचीत के कई चरण भी पूरे हो गए है. भले अभी तक वांछित परिणाम नहीं आया लेकिन बातचीत अभी बंद नहीं हुई है. अगली बातचीत बुधवार को यानी आज है, जिसकी घोषणा भी पिछले बातचीत के दौरान हो चुकी थी. बावजूद इसके बंद पुकारना और उसमे देश के सभी विपक्षी दलों की खुली भागीदारी समझ से परे है. आखिर इस बंद से क्या हासिल हुआ? जैसी किसान संगठनों और बंद का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों को उम्मीद थी, वैसा कुछ नहीं हुआ. इससे बहुत ज्यादा तो नहीं पर मिला-जुला प्रतिसाद कहा जा सकता है, उसके बाद भी जब बातचीत की चौखट पर आना ही है तो फिर इतनी देश व्यापी खटपट क्यों की गयी? रास्ता जाम कर आम-अवाम का आना-जाना क्यों दूभर किया गया? यह सब ठीक नहीं है. मोदी का चुनावी समर में मुकाबला नहीं कर पा रहे है, तो ऐसी ओछी हरकत करें जो देशविरोधी ताकतों, जैसे खालिस्तानियों को अपना उल्लू सीधा करने का मौक देता है जो निंदनीय है. सरकार ने कभी नहीं कहा कि अन्नदाता की बात नहीं सुनेगें, या उनकी आशंकाओं और कुशंकाओं का समाधान नहीं करेंगे. फिर आंदोलन की हठधर्मिता पर उतारू रहना सही नहीं है, साथ ही बातचीत में भी खाने को लेकर और अन्य छोटी-मोटी बातों को लेकर ऐसा आचरण करना, कि जैसे देश की सरकार से नहीं किसी दुश्मन से डील कर रहे है, सर्वथा आपत्तिजनक है. किसान की समस्या देशव्यापी है. उसमें भी पंजाबी, हरियाणवी या राजस्थानी चस्का लगाना कहां तक सही है? जितना काम मौजूदा केन्द्र सरकार के कार्यकाल में किसानों की आय बढाने व उनकी माली हालत सुधारने के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में किया गया है, इसके पहले कभी नहीं हुआ. आज भी आपकी हर मांग पर विचार करने और उसका समाधान करने के लिए सरकार बात कर रही है, बावजूद इन सबके क्या इतना होहल्ला करना उचित है? जबकि देश के किसानों का एक बड़ा वर्ग इन सभी आंदोलनों से निर्लिप्त है. बंद में भी किसान और उनके संगठनों से कहीं ज्यादा राजनीतिक लोग सक्रिय थे, यह किस दृष्टि से ठीक है? अलबाा इन हरकतों ने इसे एक निहायत आन्तरिक मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना दिया. कहीं खालिस्तानी फायदा उठा रहे है, झंडा फहरा रहे हैं तो कहीं कोई दूसरा देश हमारे आन्तरिक मामलों पर टिप्पणी कर रहा है. जिस तरह का चरित्र हमारे मुद्दाविहीन विपक्षी दलों का है, यही नहीं कई मामलों में सामने आ रहा है, यह उसी का खामियाजा है कि सब रोज हासिये पर जा रहे हैं. सिर्फ सरकार को परेशान करना है, इसलिए बिना आंदोलन से फायदे नुकसान का अंदाजा लगाये हल्ला ब्रिगेड का हिस्सा बन जाना राजनीति नहीं है. अब वह दिन लद गए. ऐसी हरकतें कर विपक्ष अपनी ही थू-थू करा रहा है, यह सही नहीं है. ऐसा तो बिलकुल नहीं है कि कोई आपकी बात नहीं सुन रहा है, पहले दिन से ही सरकार बात करने और समाधान ढूंढ़ने के लिए तैयार है, फिर यह अड़ियल रवैय्या क्यों अपनाया जा रहा है? हमारे विपक्षी कितने बेगैरत हो गए है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मोदी सरकार पर इनके नेता रोज टिप्पणी कर रहे है, जो मन में आये वह बोल रहे है लेकिन कनाडा के प्रधानमंत्री की अनाधिकार बयानबाजी पर किसी ने भी कुछ भी नहीं बोला. ऐसी ओछी राजनीति न देश के हित में है और न ही किसानों के. इसलिए हठधर्मिता ठीक नहीं है, अब बातचीत से जल्दी रास्ता निकलना चाहिए.
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