पनी पार्टी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में अपने धुर प्रतिद्वंद्वी पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ के मुकाबले सांसदों का बहुमत खोने के बाद नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली के पास संसद को भंग करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। गौरतलब है कि संसद का कार्यकाल अभी दो वर्ष बचा था। राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने ओली सरकार की सिफारिश के मुताबिक संसद यानी प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया और अगले वर्ष अप्रैल-मई में मध्यावधि चुनाव की घोषणा भी कर दी । ओली के इस फैसले से पहले सांविधानिक परिषद अधिनियम से संबंधित एक अध्यादेश को वापस लेने की मांग की गई थी, जिसे बीते मंगलवार को लागू किया गया था। अधिनियम के प्रावधान के अनुसार, छह सदस्यों में से पांच को बैठक बुलाने के लिए उपस्थित होना जरूरी है। विश्लेषकों का मानना है कि ओली का इस तरह सत्ता से हटना चीन के लिए एक बड़ा झटका है, जो नेपाल के आंतरिक मामलों में अपनी राजदूत, होउ यान्की के माध्यम से खुलेआम दखल देता रहा है। इसके विपरीत, भारत राहत की सांस ले सकता है, क्योंकि ओली चीन के इशारे पर काम कर रहे थे और संसद में विधेयक लाकर भारतीय क्षेत्रों को नए नक्शे में शामिल करने के अलावा भारत द्वारा बनाई जा रही कैलाश मानसरोवर सड़क पर आपत्ति जताई थी। कुछ हफ्ते पहले सत्तारूढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएन) के दो गुटों (प्रधानमंत्री ओली के गुट और पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड के गुट) ने एक दूसरे के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए थे, जो वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता का कारण बने। भविष्य में कम्युनिस्ट पार्टी में फूट से इन्कार नहीं किया जा सकता।
प्रधानमंत्री ओली इससे पहले सीपीएन की स्थायी समिति के अधिकांश सदस्यों के हमले से बच गए थे, जिन्होंने सभी मोर्चों पर विफल रहने और कोविड-19 से ठीक से नहीं निपटने के कारण उनसे इस्तीफे की मांग की थी। इसके 44 में से 33 सदस्य ओली की बेदखली पर अड़े हुए थे, लेकिन नेपाल स्थित चीनी राजदूत होउ यान्की की दखलंदाजी के कारण वह अपनी कुर्सी बचा सके। ओली ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं (जिन्होंने स्थायी समिति की बैठक में उन्हें लताड़ा था) पर संदेह की उंगली उठाने के अलावा अपने खिलाफ तख्तापलट की साजिश रचने के लिए नेपाल स्थित भारतीय दूतावास पर आरोप लगाया था।
लेकिन अब भारत नेपाल के संकट को देख रहा है, क्योंकि ओली भारत को दोषी नहीं ठहरा सकता, क्योंकि मौजूदा संकट के लिए उनके अपने कामकाज ही जिम्मेदार हैं। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के सह-अध्यक्ष प्रचंड ने प्रधानमत्री ओली पर निशाना साधा और 16 पन्नों का दस्तावेज पेश किया, जिसमें सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप, प्रधानमंत्री के रूप में ओली की पूर्ण विफलता, और सरकार द्वारा अपनाए गए जन विरोधी रुख के कारण पार्टी को हुए नुकसान के चलते उनसे तत्काल इस्तीफे की मांग की गई।
विशेषज्ञों का कहना है कि सीपीएन के अंदर समस्या का मुख्य कारण ओली द्वारा वरीयता क्रम के सिद्धांत का उल्लंघन है, जो स्थायी समिति के अधिकांश सदस्यों को नाराज करता है। विश्लेषकों का मानना है कि दोनों समूहों के बीच खुले टकराव का मुख्य मुद्दा पार्टी में नेतृत्व को लेकर है। पर्यवेक्षकों का यह भी मानना है कि ओली ने चीन के प्रभाव के कारण आरोप लगाया कि पार्टी के कुछ निहित स्वार्थी लोगों ने उन्हें सत्ता से बेदखल करने की कोशिश की थी, जो स्पष्ट रूप से भारत के इशारे पर हुई। इसने प्रचंड के गुट को बदनाम कर दिया, जिसने ओली से छुटकारा पाने का फैसला किया। हालांकि भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने एक सकारात्मक पहल की थी और अपने विदेश सचिव हर्षवर्धन शृंगला, सेना प्रमुख एम एम नरवाणे और भारतीय विदेशी गुप्तर एजेंसी के प्रमुख सामंत गोयल को ओली की आक्रामक कार्रवाइयों की अनदेखी करते हुए संबंधों को सुधारने के लिए भेजा था। विदेश सचिव ने विभिन्न स्तरों पर बातचीत की और नेपाल सरकार ने दोनों राष्ट्रों के बीच मतभेद कम करने के लिए विचारों के आदान-प्रदान पर संतोष व्यक्त किया। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, ओली सत्ता में बने रहने के लिए इतने व्यग्र थे कि उन्होंने धुर राजनीतिक विरोधी पार्टी नेपाली कांग्रेस से भी आपातकाल में मदद लेने की कोशिश की थी।
लेकिन नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के पतन का साक्षी बनने का इंतजार करती नेपाली कांग्रेस ने ओली के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। गौरतलब है कि नेपाली कांग्रेस जब वहां सत्ता में थी, तो वह भारत के साथ खड़ी थी, जिससे भारत के संबंध नेपाल के साथ मजबूत थे। अब भारत सरकार को अपने दूतावास के माध्यम से नेपाली कांग्रेस का भरोसा जीतने की कोशिश करनी चाहिए, जिसने फिर से नक्शे बनवाने के प्रस्ताव का समर्थन किया है। भारत को नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को खत्म करने के लिए बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए, क्योंकि चीन का दीर्घकालीन उद्देश्य भारत के लिए सुरक्षा की दृष्टि से परेशानी पैदा करना है, जिसे गंभीरता से लेना चाहिए। अब चूंकि नेपाल में संसद भंग कर दी गई है और मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर दी गई है, तो भारत को तटस्थ रहकर नतीजे का इंतजार करना चाहिए और जो भी पार्टी सत्ता में आती है, उसके साथ तालमेल करना चाहिए।
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