लगभग दो साल पहले चीन के विदेश मंत्री ने भारत और चीन को विश्व की दो उदीयमान शक्तियां बताते हुए चीन के प्रतीक ड्रैगन और भारत के प्रतीक हाथी के एक साथ नृत्य करने का यानी मिलकर काम करने का आवाहन किया था. जिस पर यकीन करते हुए हाथी ने उनके साथ कुछ कदम बढ़ाए थे, लेकिन ड्रैगन कब कौन सा दांव चलेगा उस पर यकीन नहीं किया जा सकता. वैसे चीन जिसका वह प्रतीक है, उस पर भी सहजता से यकीन नहीं किया जा सकता. चीन ने नृत्य की इच्छा जरूर व्यक्त की लेकिन अपनी फितरत नहीं बदली,हमारी जमीन पर उसकी बदनीयती जारी रही. उसे लगा था कि हमेशा की तरह मोदी युग में भी उसका ड्रैगन नाच काम आ जाएगा. हम बदल गये हैं, ड्रैगन की चाल से हाथी का आक्रोश बढ़ रहा है. उसे डोकलाम में इसका एहसास हुआ. उसने यह भी देखा कि जब हाथी पैर जमा कर खड़ा होता है तो ड्रैगन को भागना पड़ता है. फिर भी उसे संतोष नहीं हुआ और उसने लद्दाख में भी फिर गुस्ताखी की. वहां ड्रैगन ने बहुत फुफकार छोड़ी, लेकिन जब हाथी टस से मस नहीं हुआ और उसको जैसे को तैसा जबाब दिया तो उसकी समझ आ गया कि हाथी तब तक ठीक है, जब तक वह शांत है और उसे छेड़ा ना जाय, लेकिन एक बार छेड़ दिया गया और उसे एक बार क्रोध आ गया तो फिर उसे वश में करना ड्रैगन के वश की बात नहीं है. वह कुचला जाएगा .यह एहसास होते ही चीन यानि ड्रैगन वापस पुरानी अवस्था की और दौड़ लगा रहा है. उम्मीद है कि इस बार चीन हमेशा के लिए सबक लेगा और अपनी विस्तारवादी, भूपिपासु नीति का परित्याग कर एक जिम्मेदार पड़ोसी की भांति व्यवहार करेगा. अपने को दुनिया का दादा बनाने के लिए अपने छोटी बड़े पड़ोसियों के प्रति द्वेष या षड्यंत्र का भाव नहीं रखेगा. दादाओं की हड़प नीति का प्रदर्शन नहीं करेगा और आपसी मामलात बातचीत से हल करेगा. दादाओं का अंत बुरा होता है. इसका उसे ज्ञान होना चाहिये. हम उसकी तमाम नादानियों के बाद भी उस पर भरोसा करने को तैयार हैं, लेकिन हमारी नजर उस पर तब तक हमेशा सख्त रहने वाली है, जब तक वह सही राह पर नहीं आ जाता, इसलिए कम से कम अब तो उसे हमारे साथ ऊपर से प्यार और नीचे से वार वाली नीति छोड़ देनी चाहिए. कारण उससे उसकी फजीहत ही होती है. पहले डोकलाम में हुई और आज लद्दाख में भी हो रही है, उसे पंचशील सिद्धांत पर सिर्फ बात नहीं करनी चाहिए उसे आचरण में उतारना चाहिए.
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